देहरादून। जब देहरादून के एक हिस्से में इगास का उत्सव रोशनी और शानो-शौकत के बीच एक ‘इवेंट’ बन चुका था, वहीं शहर के दूसरे छोर पर कुंआवाला स्थित सीआईएमएस कॉलेज में इगास का असली मतलब जीया जा रहा था — दूसरों के चेहरों पर मुस्कान लाना।
यहां करीब 60 से अधिक मासूम बच्चे, जो 2013 की केदारनाथ आपदा में अपने माता-पिता को खो चुके थे, भैलो खेल रहे थे, पटाखे जला रहे थे और खुशियों से झूम रहे थे। रात के अंधेरे में भी उनके चेहरों पर जो रौनक थी, वह देहरादून के किसी भी सरकारी इवेंट की हाईमास्ट लाइटों से ज़्यादा चमकदार थी।
और इस ‘खुशियों की शाम’ के सूत्रधार थे — सीआईएमएस के चेयरमैन ललित जोशी, जिन्होंने अपने कर्मों से यह दिखा दिया कि बड़ा आदमी वो नहीं होता जिसके पास दौलत हो, बल्कि वो होता है जिसके पास दिल हो।
धाद और ललित — संवेदना की साझेदारी
वर्ष 2013 की केदारनाथ आपदा ने उत्तराखंड के पहाड़ों से कई मुस्कानें छीन ली थीं। कई घर उजड़ गए, और सैकड़ों बच्चे अनाथ हो गए।
इन्हीं बच्चों के जीवन की डोर थामी थी धाद संस्था ने।
धाद संस्था ने आपदा के बाद 175 बच्चों को गोद लिया और उनकी पूरी स्कूली शिक्षा की जिम्मेदारी निभाई। लेकिन जब इन बच्चों की उच्च शिक्षा की बारी आई, तब आगे आए ललित जोशी, जिन्होंने बिना कोई प्रचार किए इन बच्चों की निशुल्क उच्च शिक्षा की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ले ली।
इगास की असली खुशी — मुस्कानें बांटना
इगास पर्व के मौके पर तीन दिन तक ये सभी बच्चे और उनके परिजन सीआईएमएस कैंपस में रहे।
ललित जोशी और धाद संस्था ने इन बच्चों के लिए न सिर्फ पारंपरिक भैलो-दीपोत्सव का आयोजन किया, बल्कि मिठाई, कपड़े, खिलौने और गिफ्ट्स भी बांटे।
‘डोर संस्था’ की सोनू केडिया ने बच्चों को खिलौने भेंट किए।
ललित जोशी ने बच्चों को देहरादून के मॉल ऑफ देहरादून में घूमाया, मल्टीप्लेक्स में फिल्म दिखाई और शहर की प्रमुख जगहों की सैर कराई।
इन मासूम चेहरों पर जब पहली बार खुशी की झिलमिलाहट उभरी, तो मानो पूरे इगास का अर्थ ही बदल गया।
कौन कहता है कि इंसान अकेले कुछ नहीं बदल सकता?
ललित जोशी और धाद संस्था ने यह साबित कर दिया कि
“इगास सिर्फ रोशनी का नहीं, संवेदना का पर्व है।”
जब एक तरफ सत्ता के गलियारों में लाखों-करोड़ों रुपये केवल दिखावे पर खर्च हो रहे थे, तब दूसरी तरफ ललित जोशी जैसे लोग चुपचाप असली “इगास की आत्मा” को जीवित रखे हुए थे।
ललित जोशी ने कहा था —
“खुशियां बांटने से ही बढ़ती हैं। और इन बच्चों के चेहरों पर मुस्कान देखना ही मेरे लिए सबसे बड़ा पर्व है।”
सच्चे नायक — जो सुर्खियों में नहीं, दिलों में बसते हैं
आज जब समाज दिखावे की दौड़ में आगे बढ़ रहा है, ऐसे में ललित जोशी जैसे लोगों की मिसाल बताती है कि ‘बड़ा आदमी’ बनने के लिए बड़ा दिल होना जरूरी है।
वो इंसान जिसने इन अनाथ बच्चों को न सिर्फ शिक्षा दी, बल्कि उन्हें यह एहसास भी दिलाया कि दुनिया में अब भी इंसानियत जिंदा है।
इगास की रात भले ही खत्म हो गई हो, लेकिन ललित जोशी और धाद संस्था द्वारा जलाए गए संवेदना के दीप हमेशा जगमगाते रहेंगे।
शायद यही सच्चे अर्थों में ‘बड़े आदमी’ होने का पैमाना है — दूसरों के दुख को अपना मानकर उन्हें मुस्कुराने का कारण देना












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