दिल्ली: उत्तराखंडी भाषा प्रसार समिति द्वारा देश के कई प्रदेशों के उतराखण्ड निवासी बहुल्य नगरों महानगरों में कई संगठनों के साथ उतराखण्ड की प्रतिनिधि भाषा पर विमर्श हेतु कई बैठकें की। इसी संदर्भ में दिल्ली गढ़वाल भवन में एक बैठक का आयोजन किया गया है।
जिसके मुख्य अतिथि डॉ जीतराम भट्ट सचिव हिंदी, गढ़वाली कुमाऊनी जौनसारी अकादमी, डॉ हरि सुमन बिष्ट पूर्व सचिव हिंदी अकादमी श्री पार्थ सारथी थपलियाल साहित्यकार और श्री प्रताप सिंह शाही राज्य आंदोलनकारी उपस्थित हुए। सभी ने श्रीदेव सुमन को श्रद्धांजलि देते अपनी बातें रखी। डॉ बिष्ट ने कहा कि राज्य स्थापना के बाद ही सरकार द्वारा प्रतिनिधि भाषा के लिए काम आरंभ करना चाहिए था उन्होंने दिल्ली में गढ़वाली कुमाऊनी जौनसारी अकादमी के गठन और सहभाषा पुरस्कार की चर्चा की, उन्होंने कहा कि जिस विषय को लेकर डॉ जलन्धरी कई बर्षों से काम कर रहे हैं उसकी रहा लंबी है जिसमें कई तरह की कठिनाइयां आएंगी, जो लोग आज विरोध कर रहे हैं कल लाभ लेने सबसे पहले वही आएंगे।
श्री थपलियाल ने प्रतिनिधि भाषा की आवश्यकता के साथ भाषा की मिठास के संबंध में कई उदाहरण रखे उन्होंने प्रतिनिधि भाषा और विभिन्न बोलियों के अंतर के संबंध में बताया। श्री प्रताप शाही ने कहा कि हमारी मुख्य लड़ाई हमारी पहचान के लिए थी, राज्य बनने के बाद इसे उतराखण्ड नाम से नहीं बल्कि गढ़वाली कुमाऊनी जौनसारी आदि के नाम से पहचान दिलाने की कोशिश हो रही है जो अनुचित है। हम उतराखण्डी हैं तो हमारे उत्तराखंड की भी प्रतिनिधि भाषा होनी चाहिए। खजाना दत्त शर्मा ने जौनसारी में अपनी बात आरम्भ कर सभी को आकर्षित किया।
उन्होंने उतराखण्ड की सभी बोलियों को संरक्षित करने व उनको विलुप्ति से बचाने की बात की। डॉ बिहारीलाल जलन्धरी ने पंजाबी गुजराती मराठी और हिंदी खड़ी बोली के आरंभिक इतिहास का जिक्र किया। उन्होंने कहा जिस तरह हिंदी खड़ी बोली 22 बोलियों के प्रतिष्ठित शब्दों को समेकीकृत कर तैयार की गई उसी तरह पंजाबी की 7 बोलियों गुजराती की 23 बोलियों और मराठी की 8 बोलियों को मिला कर सरकार के संरक्षण में प्रतिनिधि भाषा बनी जिसे प्रदेश के विद्यालयों में एक विषय के रूप में लागू किया गया। जिसे पढ़ने व पास करने वालों को उस प्रदेश में आरक्षण भी दिया गया। ऐसा ही उत्तराखंड में भी होना चाहिए। साहित्यकार श्री विमल सजवाण ने भी अपने विचार रखे। श्री चंदन सिंह गुसाईं ने प्रदेश की प्रतिनिधि भाषा के लिए मिलकर काम करने के लिए कहा।
मंच संचालन करते हुए श्री पृथ्वी सिंह केदारखंडी ने कहा कि आज हमने दिल्ली एनसीआर के अधिकांश साहित्यकारों और समाजसेवियों को आमंत्रित किया था, समाजसेवी तो उपस्थित हुए परंतु कुछ साहित्यकारों को छोड़कर अधिकांश नहीं पहुंच सके। आज इस विषय पर जितने भी गतिरोध हो रहे थे उन सभी पर साहित्यकारों से विमर्श किया जाना था। उन्होंने कहा कि उतराखण्ड में प्रतिनिधि भाषा के लिए गढ़वाली या कुमाऊनी में से किसी एक को चुना जाता है तो दूसरी बोली के लोग इसे स्वीकार करेंगे ॽ यही कारण है कि सरकार गत बाईस वर्षों से किसी भी भाषा की अकादमी या परिषद की स्थापना नहीं कर पाई।
वक्ताओं ने अपनी बात रखी, उतराखण्ड की प्रतिनिधि होनी चाहिए तो किस तरह उसपर कार्य हो और नहीं होनी चाहिए तो क्यों नहीं। यह सब गोष्ठी में चर्चा का विषय रहा है।
सभा धन्यवाद करते हुए डॉ जलन्धरी ने एक प्रस्ताव रखा जिसे ध्वनिमत से पारित किया कि समाज सेवी और साहित्यकार मिल बैठ कर इस पर विमर्श करें और एक प्रस्ताव को सांसदों के माध्यम से उतराखण्ड सरकार को भेजेंगे।
इस विचार के साथ जुड़ने वाले लोगों डराया, धमकाया जा रहा है जिससे कुछ साहित्यकार बैठक से बाहरी परिसर में थे उन्हें भी उपस्थित माना गया।
बैठक में उपस्थित समाजिक और साहित्यिक लोगों में सर्व श्री चन्द्र सिंह रावत, सुल्तान सिंह तोमर, दिनेश चंद्र जोशी, बचे सिंह अधिकारी, भुवनेश जलन्धरी, शिवम् जलन्धरी, जरनैल सिंह नेगी, हर्षपाल सिंह नेगी, उम्मेद सिंह नेगी, तिलक शर्मा, तारा दत्त जोशी, प्रताप सिंह नेगी, महेंद्र सिंह लटवाल, पद्म सिंह बिष्ट, दिनेश मोहन धिल्डियाल, चंदन सिंह गुसाईं, अरविंद सिंह, हर्ष सिंह, केदार सिंह, पप्पू सिंह, मोहन सिंह, आनंद सिंह, बृज मोहन, उम्मेद सिंह, बीरेंद्र बिष्ट, भोपाल सिंह, धन सिंह, भगत सिंह, मीना कंडवाल, गिरधारी रावत, दर्शन सिंह रावत, रमेश धिल्डियाल, आदि अन्य कई लोग उपस्थित हुए।