रिपोर्ट : सूरज विश्वकर्मा,देवीधुरा
देवीधुरा (चंपावत)के मां बाराही धाम के प्रांगण में होने वाला ऐतिहासिक बग्वाल मेला आषाढ़ी कौतिक के नाम से भी जाना जाता है,रक्षाबंधन के दिन प्रत्येक वर्ष बग्वाल खेली जाती है,मां बाराही मंदिर 52 शक्तिपीठों में से एक माना जाता है।
कहा जाता है कि चंद राजाओं के शासन काल में इस सिद्ध पीठ में चम्पा देवी और ललितजिह्वा महाकाली की स्थापना की गई थी।तब *महर* लोगो द्वारा महाकाली को पूजा जाता था,बताया जाता है की रोहेलो के आक्रमण के समय कत्यूरो द्वारा बाराही की मूर्ति को घने जंगल के एक भवन में स्थापित कर दिया गया था,पौराणिक कथाओं के अनुसार यह स्थान प्राचीन समय में महाकाली की उपासना का केंद्र था।
जहां किसी समय में मां के गणों को प्रसन्न करने के लिए नरबली की प्रथा थी।
हर वर्ष चार खाम(गहड़वाल खाम,चम्याल खाम,बालिक खाम, लमगड़िया खाम)
के लोगो के से एक नरबली दी जाती थी,बताया जाता है की एक साल चम्याल खाम कि नरबली की बारी थी और उस परिवार में सिर्फ एक वृद्धा और उसका पौत्र ही जीवित थे,माना जाता है की उस वृद्धा ने मां बाराही की आराधना की ,मां बाराही ने वृद्धा को दर्शन दिए और कहा जाता है की मां बाराही ने चार खामो के बीच बगवाल खेलने के निर्देश दिए।।
तबसे हर वर्ष श्रावणी पूर्णिमा के दिन बगवाल खेली जाती है,एक आदमी के बराबर रक्त निकलने के बाद बगवाल को पुजारी जी द्वारा शंख , घंटी बजाकर बंद कराया जाता है।
ऐतिहासिक बगवाल मेले को देखने के लिए देश विदेश से श्रद्धालु आते हैं और ये छेत्रीय लोगो के लिए आस्था का केंद्र है।
पहले बगवाल मेले में पासाण युद्ध होता था,2013 में हाईकोर्ट के निर्देश पर पत्थरो के स्थान पर फल और फूलो से बगवाल होती है,यह भी मान्यता है की बगवाल के वक्त मां बाराही के प्रांगण में पत्थर स्वत ही उत्पन्न हो जाते है।
यहां की मान्यता है कि मां बाराही की दिव्य मूर्ति को ताम्र पत्र में रखा गया है,अगर कोई उसे नग्न आखों से देख ले तो उसके आंखो की रोशनी चली जाती है।