रिपोर्ट कार्तिक उपाध्याय
स्वास्थ्य प्रत्येक नागरिक का मौलिक अधिकार है,जो सुरक्षित करता है नागरिकों के अच्छे इलाज को,लेकिन दुर्भाग्य है उत्तराखंड के नागरीक एक अलग पहाड़ी राज्य बनने के बाद भी आज दर-दर इलाज के लिए भटकते हैं
पहाड़ों पर अस्पताल रेफर सेंटर बने रहते हैं और जब मैदानी इलाकों में इलाज की बात आती है तो प्रत्येक दिन सारे अस्पताल कई सवाल के घेरे में आते है
सूचना अधिकार से प्राप्त जानकारी कहती है राजकीय मेडिकल कॉलेज हल्द्वानी के अंतर्गत सुशीला तिवारी अस्पताल में बर्न यूनिट और सुपरस्पेशल्टी विभाग बिना नर्सिंग स्टाफ के संचालित हो रहे हैं
अब ऐसे में सवाल न सिर्फ अस्पताल पर खड़ा होता है बल्कि सवाल यह भी खड़ा होता है कि खुलेआम नागरिकों के मौलिक अधिकार *स्वास्थ्य के अधिकार* का हनन करने का यह अधिकार स्वास्थ्य मंत्रालय एवं जिम्मेदार अधिकारियों को किसने दिया
सूचना अधिकार में प्राप्त जानकारी बताती है अस्पताल के भीतर स्वीकृत स्टाफ नर्स के पदों की संख्या कुल 310 है,जिसमें वर्तमान में कार्यरत कार्मिकों की संख्या नियमित 69,संविदा 0,उपनल 60,टीडीएस 107 कुल 236 है,वही 74 पद आज भी रिक्त पड़े हुए हैं
बात करें बहुत गंभीर सुपर स्पेशलिटी विभाग जिसमें स्टाफ नर्स के 10 पद स्वीकृत है और रिक्त भी 10 है,वही यही हाल एक गंभीर विभाग जिसके लिए करोड़ों खर्च किए जाते हैं और अस्पताल के भीतर उसी यूनिट में स्टाफ नर्स के 12 पद स्वीकृत होने के बाद 12 के 12 रिक्त पड़े हुए हैं
अब सवाल है आखिर इतने गंभीर विभागों में जब मरीज पहुंचते हैं तो बिना स्टाफ नर्स के उनकी देखभाल वहां कौन करता है,यह बड़ा गंभीर सवाल है जिसका जवाब अवश्य ही उत्तराखंड के नागरिकों को राज्य सरकार,स्वास्थ्य मंत्री डॉ धन सिंह रावत मुख्यमंत्री श्री पुष्कर धामी को अवश्य देना चाहिए
संदर्भ में जब अस्पताल के चिकित्सा अधीक्षक से दूरभाष पर संपर्क किया गया तो उन्होंने कहा कि वह अभी कहीं बाहर है लौट कर जरूर इसका संज्ञान लेंगे आउटसोर्सिंग कंपनी टीडीएस के माध्यम से नियुक्तियां रिक्त पदों पर करी जा रही है लेकिन जब उनसे सवाल किया गया बिना स्टाफ नर्स आखिर मरीज भर्ती क्यों हो रहे हैं क्योंकि आज भी दो मरीज बर्न यूनिट में भर्ती हैं तो उन्होंने कहा आपके द्वारा संज्ञान में लाया गया है लौटकर इसे गंभीरता से देखेंगे लेकिन यह जवाब सहमति भरा नहीं है सिर्फ यह कह देना जिम्मेदारी का उत्तरदायित्व नहीं है
अब आप ही बताइए
क्या यह लापरवाही नहीं है ?
क्या यह मौलिक अधिकारों का हनन नहीं है?
क्या यह बे इलाज भटकते उत्तराखंड के मतदाताओं का हक नहीं है ?
आखिर इन गंभीर सवालों के जवाब नागरिकों को कब मिलेंगे?