उत्तराखंड में खनन से जुड़े विवाद एक बार फिर सुर्खियों में हैं। हालात इस कदर बिगड़ गए हैं कि अब खुलकर आरोप लग रहे हैं कि खनन की कार्रवाईयों के पीछे राजनीतिक दबाव और अपने–अपने हित साधने की कोशिशें काम कर रही हैं।
हाल ही में खनन विभाग की टीम ने लोकपाल सिंह रावत से जुड़े खनन पट्टे की जांच की। लेकिन इसके बाद मामले ने नया मोड़ ले लिया है। लोकपाल सिंह रावत का कहना है कि स्थानीय विधायक के करीबी लोगों की शिकायत पर यह कार्रवाई करवाई गई, जिससे पूरे घटनाक्रम में राजनीतिक दखलंदाजी की बू आ रही है।
मुख्यमंत्री के पास विभाग, फिर भी मनमानी क्यों?
सबसे दिलचस्प बात यह है कि खनन विभाग सीधे प्रदेश के मुखिया के पास है। इसके बावजूद जिस तरह से अचानक छापेमारी, जांच और दबाव की राजनीति सामने आ रही है, वह कई सवाल खड़े करती है।
क्या ये सिर्फ “खनन अनियमितताओं” की जांच है?
या फिर यह राजनीतिक खींचतान में ताकत दिखाने का नया तरीका?
जनता देख रही है, नदियाँ भुगत रही हैं
इस पूरे विवाद का सबसे बड़ा नुकसान प्रदेश की नदियों और पर्यावरण को हो रहा है।
जिस खनन पर पारदर्शी निगरानी की ज़रूरत है, वही खनन अब हितों की लड़ाई का मैदान बन गया है।
जांच हो रही है, छापेमारी हो रही है, लेकिन अवैध खनन पर लगाम नहीं लग रही।
कब मिलेगी पारदर्शी निगरानी?
लोकपाल सिंह रावत का आरोप हो या स्थानीय सत्ता का प्रभाव—साफ दिख रहा है कि पूरे खेल में पारदर्शिता गायब है।
प्रदेश में खनन नीति कब ईमानदारी से लागू होगी, यह बड़ा सवाल है।
जनता उम्मीद में है कि राजनीतिक रस्साकशी के बीच कहीं न कहीं ईमानदार कार्रवाई का रास्ता निकले।













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