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दुर्भाग्यवश, इम्प्लांट में समस्या आने के कारण उनका हाथ पूरी तरह से काम करना बंद कर चुका था, हाथ ढीला पड़ गया था और तेज दर्द के कारण दैनिक जीवन असंभव हो गया था। अस्पताल के चेयरमैन श्रीमहंत देवेन्द्र दास जी महाराज ने हड्डी रोग विभाग की पूरी टीम को इस ऐतिहासिक सफलता के लिए बधाई देते हुए कहा कि यह उपलब्धि उत्तराखण्ड के मरीजों के लिए आधुनिक चिकित्सा सुविधाओं का नया आयाम है।
रिवीज़न एल्बो रिप्लेसमेंट: क्यों है चुनौतीपूर्ण?
अस्पताल के हड्डी रोग विभाग के प्रोफेसर डॉ. कुणाल विज ने बताया कि ऐसे मामलों में पुरानी सर्जरी के दौरान नसें और टिश्यू आपस में चिपक जाते हैं, जिससे ऑपरेशन के दौरान उन्हें अलग करना अत्यंत जोखिम भरा हो जाता है। पुराने इम्प्लांट को निकालकर नया इम्प्लांट लगाना एक जटिल प्रक्रिया है, जिसमें मिलीमीटर स्तर की सटीकता और अत्यधिक अनुभव की आवश्यकता होती है।
उन्होंने कहा कि घुटना और कूल्हा प्रत्यारोपण की तुलना में कोहनी प्रत्यारोपण के मामले देश में भी दुर्लभ होते हैं और आमतौर पर केवल मेट्रो शहरों के बड़े अस्पतालों में ही किए जाते हैं।
टीमवर्क से मिली सफलता
इस सर्जरी को सफल बनाने में डॉ. कुणाल विज, डॉ. पवन रावत, डॉ. योगेश आहूजा, डॉ. निशिथ गोविल, डॉ. पराग अग्रवाल, डॉ. जितेन्द्र, डॉ. असीम चटवाल के साथ-साथ ओ.टी. टेक्नीशियन और सहयोगी स्टाफ की अहम भूमिका रही।
ऑपरेशन के बाद महिला का हाथ सामान्य रूप से चलने लगा और उन्हें अस्पताल से डिस्चार्ज कर दिया गया। यह उपलब्धि न केवल श्री महंत इन्दिरेश अस्पताल के लिए, बल्कि पूरे उत्तराखण्ड के चिकित्सा क्षेत्र के लिए एक मील का पत्थर साबित हुई है।
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