देहरादून: जेनेरिक दवा लिखने से डॉक्टर परहेज कर रहे है। केंद्र सरकार आमजन को सस्ती दवा उपलब्ध कराने के लिए जन औषधि केंद्र को बढ़ावा दे रही है मगर स्वार्थ वश चिकित्सक इसमें दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं।
आपको बता दे कि उत्तराखंड में ही आज इन स्टोर की संख्या 217 पहुंच चुकी है।जहा आमतौर पर 350_400 तरह की दवाइयां के लिखने के लिए न केवल सरकार बल्कि शासन प्रशासन भी चिकित्सकों को लगातार केवल एडवाइजरी जारी करते रहे हैं। कई बार कहा गया कि मरीज को दवा जेनेरिक दवा ही लिखी जाए। अन्यथा कार्रवाई की जाएगी लेकिन चिकित्सक फिर भी नहीं मान रहे हैं।
आपको बता दे कि चिकित्सकों की खुदगर्जी के लिए गरीब जनता को मामूली बीमारी में भी हजारों खर्च करने पड़ते हैं जैविक दवा से चिकित्सकों का परिहास गरीब आदमी को भारी पड़ रहा है।
सोपिश बन रहे जन औषधि केंद्र
आपको बता की हर सरकारी अस्पताल में जन औषधि केंद्र खुला है। यह केंद्र इसलिए खोला गया है कि जो दवाइयां अस्पताल में न मिले वह दवाइयां यह पर सस्ते दाम पर मिल सके।
हालंकि डॉक्टर अपने फायदा के लिए जेनेरिक दवाइयां नहीं लिखते है। कई मरीज जागरूक है और वह स्वयं पर्चा लेकर जन औषधि केंद्र पर पहुंच जाते हैं जहां दावा उन्हें मिल भी जाती है। पर मरीज दवा चिकित्सक को दिखाने जाता है तो वह यह कहकर इसे रिजेक्ट कर देते हैं कि यह सही दवा नहीं है जिससे मरीज को दवा मजबूरन वापस करनी पड़ती है जिसे केंद्र संचालक भी आजिज आ चुके हैं।
कमीशन का खेल
दावा का पूरा खेल कमीशन और बिचौलियों का है इसी में फंस कर लोग ठगे जा रहे हैं जिस जेनेरिक की टेबलेट की कीमत 20 पैसे होती है उसे ब्रांडेड में ₹1 में बेचा जाता है मतलब सीधे 5 गुना ज्यादा कीमत। इसे बड़े रूप में देखे तो 100 रुपए की दावा 500 में और 500 की दावा 2500 में। कीमत में यह अंतर इससे कम भी हो सकता है। और ज्यादा भी।
आपको बता दे कि जेनेरिक दवा का कोई ब्रांड नेम नहीं होता है और वह जिस साल्ट (केमिकल) से बनी होती है उसी के नाम से जानी जाती है।जैसे दर्द और बुखार में काम आने वाली पैरासिटामोल साल्ट को इसी नाम से बेचा जाए।तो उसे नेजेरिक कहिंगे।
वही जब इसे किसी ब्रांड (जैसे क्रोसिन) के नाम से बाजार में उतारा जाता है तो यह संबंधित कंपनी की ब्रांडेड दवा कहलाती है।
अब सवाल यह उठता है। कि ब्रांडेड दवा के मुकाबले जेनेरिक दवा इतनी सस्ती क्यों है। आपको बता दे कि फार्मा कंपनियां अपनी ब्रांडेड दवाइयों के पेटेंट और विज्ञापन पर काफी रकम खर्च करते हैं।
साथ ही जेनेरिक दवाई की कीमत तय करने में सरकार का सीधा दखल होता है।